माता की महर के लिए उनकी पूजा और उपासना की जाती है। यहां पर प्रश्न यह उठता है कि यह पूजा कैसी होनी चाहिए? जो व्यक्ति पवित्र हृदय से माँ संतोषी की पूजा-आराधना करेगा, माँ उसी को मन से स्वीकार करेंगी । पूजा के लिए यह जरूरी नहीं है कि उसका प्रदर्शन किया जाए! पूजा में पवित्र हृदय का होना अत्यंत आवश्यक है। संतोषी माता की पूजा के मेरे अनुभवों के आधार पर मैं यही कहता हूँ की बस एक बार माँ को मन से मानो। माँ को मान्यता देने के बाद चाहे जैसे उनकी पूजा करो। ज्यों ही तुम्हे संतोष का अनुभव होता है, तो समझो पूजा पूर्ण हुई। माँ तुम्हारी बिनती जरूर सुनेगी। यह सच है कि कीमती पूजा-विधान, अभिषेक, होम या गेरुआ वस्त्र आदि धारण करने से ही माता प्रसन्न नहीं होती हैं। जिसने हृदय की पवित्रता को आधार बनाकर स्वयं को माता के चरणों में समर्पित कर दिया, माता उसे ही स्वीकार करती हैं। सोने-चांदी के बर्तन , मेवा-मिष्ठान या भव्य आयोजनों से नहीं बल्कि सामान्य चने और गुड से ही माँ प्रसन्न होती है।
प्रचलित धार्मिक कथाओं के अनुसार, एक बार कृष्ण की पत्नी रुक्मिणी और सत्यभामा में इस बात पर बहस हुई कि उन दोनों में कौन श्रीकृष्ण से अधिक प्रेम, स्नेह करता है? कौन उनके अधिक निकट है? दोनों ने अपने आपको उनके अधिक निकट बताया। अंत में दोनों ने एक परीक्षा द्वारा इसका समाधान ढूंढने का निश्चय किया। एक तराजू के एक पलडे में सत्यभामा ने सोना, चांदी, हीरे और कीमती आभूषण रखे, जबकि रुक्मिणी ने दूसरे पलडे में प्रेम, स्नेह और विनम्रतापूर्वक तुलसी का एक पत्ता रखा। श्रीकृष्ण ने सोने, हीरे और कीमती आभूषणों के बजाय तुलसी के पत्ते को आनंद से स्वीकार लिया, क्योंकि उन्हें विनम्रता, सरलता और पवित्रता से समर्पित किया गया था। यह वृत्तांत इस बात को स्पष्ट करता है कि ईश्वर पवित्र हृदय से समर्पित साधारण वस्तुओं को अधिक पसंद करते हैं।
ऐसा ही एक प्रसंग दक्षिण भारत स्थित कर्नाटक के उडुपिक्षेत्र में बने श्रीकृष्ण मंदिर से संबंधित है। यहां मंदिर के मुख्य द्वार की ओर पीठ की हुई भगवान की मूर्ति नजर आती है। मंदिर में प्रवेश करते ही आप श्रीकृष्ण की पीठ देख सकते हैं। इसके पीछे एक दिलचस्प कहानी है। एक गरीब भक्त प्रतिदिन भगवान के दर्शन के लिए मंदिर तक आता था। लेकिन गरीब होने के कारण, उसे मंदिर में प्रवेश नहीं मिलता था और वह मायूस होकर लौट जाता था। आंखों में आंसू लिए प्रतिदिन वह भगवान श्रीकृष्ण से उनके दर्शन के लिए प्रार्थना करता था। एक दिन श्रीकृष्ण उसके सपने में प्रकट हुए और उन्होंने उससे कहा--मंदिर की पिछली दीवार में एक छेद है। उस छेद से तुम मुझे देखो। तुम्हारे लिए मैं उस दिशा में मुड जाऊंगा और तुम मेरे दर्शन कर सकोगे। अपने भक्त को दर्शन देने के लिए श्री्रकृष्णमुड गए। श्रीकृष्ण की ऐसी भंगिमा वाली मूर्ति को आज भी उडुपिमें देखा जा सकता है।
भगवान को चढावे के रूप में मांस अर्पित करना निषिद्ध है। लेकिन दक्षिण भारत के कणप्पानामक शिवभक्तने भगवान शिवजी को नैवेद्य में मांस अर्पित किया था। समर्पण करने से पहले खाना स्वादिष्ट बना है या नहीं, यह देखने के लिए उसने उसे चखकर जूठा भी कर दिया था। फिर भी शिवजी ने उसे स्वीकारा, क्योंकि कणप्पाने उसे भक्ति तथा पवित्र हृदय से समर्पित किया था।
कुल मिलाकर पूजा, प्रार्थना, उपासना, इबादत में हृदय की पवित्रता, माता के प्रति मान्यता और समर्पण भाव हो, तभी संतोष की प्राप्ति होगी और हम माँ संतोषी के निकट होने की अनुभूति कर पाएंगे।
3 टिप्पणियां:
main jaaha par rahati hu waha par cows nahi hai.................to kya main apana prasad kisi ko bhi baat sakati hu yaa sirf gharwala ko..........ya sirf hunko jo kata nahi kaate
kripaya mjhe is baare main jaanakari de...........
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