गुरुवार, 2 जुलाई 2009

संतोषी माता शुक्रवार व्रत कथा मूल हिन्दी पाठ

संतोषी माता की शुक्रवार व्रत कथा का हिंदी मूल पाठ विशेष कर विदेशों में रह रहे उन भक्तों के लिए 'गूगल' के सहयोग से इस ब्लाग पर दिया जा रहा है, जिन्हें वहां यह आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाता।
संतोषी माता शुक्रवार व्रत कथा

एक बुढिय़ा थी, उसके सात बेटे थे। छह कमाने वाले थे। एक निक्कमा था। बुढिय़ा मां छहो बेटों की रसोई बनाती, भोजन कराती और कुछ झूटन बचती वह सातवें को दे देती थी, परन्तु वह बड़ा भोला-भाला था, मन में कुछ विचार नहीं करता था। एक दिन वह बहू से बोला- देखो मेरी मां को मुझ पर कितना प्रेम है। वह बोली-क्यों नहीं, सबका झूठा बचा हुआ जो तुमको खिलाती है। वह बोला- ऐसा नहीं हो सकता है। मैं जब तक आंखों से न देख लूं मान नहीं सकता। बहू ने हंस कर कहा- देख लोगे तब तो मानोगे?

कुछ दिन बात त्यौहार आया, घर में सात प्रकार के भोजन और चूरमे के लड्डू बने। वह जांचने को सिर दुखने का बहाना कर पतला वस्त्र सिर पर ओढ़े रसोई घर में सो गया, वह कपड़े में से सब देखता रहा। छहों भाई भोजन करने आए। उसने देखा, मां ने उनके लिए सुन्दर आसन बिछा नाना प्रकार की रसोई परोसी और आग्रह करके उन्हें जिमाया। वह देखता रहा। छहों भोजन कर उठे तब मां ने उनकी झूंठी थालियों में से लड्डुओं के टुकड़े उठाकर एक लड्डू बनाया। जूठन साफ कर बुढिय़ा मां ने उसे पुकारा- बेटा, छहों भाई भोजन कर गए अब तू ही बाकी है, उठ तू कब खाएगा? वह कहने लगा- मां मुझे भोजन नहीं करना, मै अब परदेस जा रहा हूं। मां ने कहा- कल जाता हो तो आज चला जा। वह बोला- हां आज ही जा रहा हूँ । यह कह कर वह घर से निकल गया। चलते समय स्त्री की याद आ गई। वह गौशाला में कण्डे थाप रही थी।

वहां जाकर बोला-दोहा- हम जावे परदेस आवेंगे कुछ काल। तुम रहियो संन्तोष से धर्म आपनो पाल।

वह बोली- जाओ पिया आनन्द से हमारो सोच हटाय। राम भरोसे हम रहें ईश्वर तुम्हें सहाय।

दो निशानी आपनी देख धरूं में धीर। सुधि मति हमारी बिसारियो रखियो मन गम्भीर।

वह बोला- मेरे पास तो कुछ नहीं, यह अंगूठी है सो ले और अपनी कुछ निशानी मुझे दे। वह बोली- मेरे पास क्या है, यह गोबर भरा हाथ है। यह कह कर उसकी पीठ पर गोबर के हाथ की थाप मार दी। वह चल दिया, चलते-चलते दूर देश पहुंचा। वहां एक साहूकार की दुकान थी। वहां जाकर कहने लगा- भाई मुझे नौकरी पर रख लो। साहूकार को जरूरत थी, बोला- रह जा। लड़के पूछा- तनखा क्या दोगे? साहूकार ने कहा- काम देख कर दाम मिलेंगे। साहूकार की नौकरी मिली, वह सुबह ७ बजे से १० बजे तक नौकरी बजाने लगा। कुछ दिनों में दुकान का सारा लेन-देन, हिसाब-किताब, ग्राहकों को माल बेचना सारा काम करने लगा। साहूकार के सात-आठ नौकर थे, वे सब चक्कर खाने लगे, यह तो बहुत होशियार बन गया। सेठ ने भी काम देखा और तीन महीने में ही उसे आधे मुनाफे का हिस्सेदार बना लिया। वह कुछ वर्ष में ही नामी सेठ बन गया और मालिक सारा कारोबार उस छोड़कर चला गया।

अब बहू पर क्या बीती? सो सुनों, सास ससुर उसे दु:ख देने लगे, सारी गृहस्थी का काम कराके उसे लकड़ी लेने जंगल में भेजते। इस बीच घर के आटे से जो भूसी निकलती उसकी रोटी बनाकर रख दी जाती और फूटे नारियल की नारेली मे पानी। इस तरह दिन बीतते रहे। एक दिन वह लकड़ी लेने जा रही थी, रास्ते मे बहुत सी स्त्रियां संतोषी माता का व्रत करती दिखाई दी। वह वहां खड़ी होकर कथा सुनने लगी और पूछा- बहिनों तुम किस देवता का व्रत करती हो और उसकेकरने से क्या फल मिलता है? इस व्रत को करने की क्या विधि है? यदि तुम अपने इस व्रत का विधान मुझे समझा कर कहोगी तो मै तुम्हारा बड़ा अहसान मानूंगी। तब उनमें से एक स्त्री बोली- सुनों, यह संतोषी माता का व्रत है। इसके करने से निर्धनता, दरिद्रता का नाश होता है। लक्ष्मी आती है। मन की चिन्ताएं दूर होती है। घर में सुख होने से मन को प्रसन्नता और शान्ति मिलती है। निपूती को पुत्र मिलता है, प्रीतम बाहर गया हो तो शीध्र घर आवे, कवांरी कन्या को मन पसंद वर मिले, राजद्वारे में बहुत दिनों से मुकदमा चल रहा हो खत्म हो जावे, कलह क्लेश की निवृति हो सुख-शान्ति हो। घर में धन जमा हो, पैसा जायदाद का लाभ हो, रोग दूर हो जावे तथा और जो कुछ मन में कामना हो सो सब संतोषी माता की कृपा से पूरी हो जावे, इसमें संदेह नहीं।

वह पूछने लगी- यह व्रत कैसे किया जाए यह भी बताओ तो बड़ी कृपा होगी। वह कहने लगी- सवा आने का गुड़ चना लेना, इच्छा हो तो सवा पांच आने का लेना या सवा रुपए का भी सहूलियत के अनुसार लेवे। बिना परेशानी और श्रध्दा व प्रेम से जितना भी बन पड़े सवाया लेना। प्रतयेक शुक्रवार को निराहार रह कर कथा सुनना,इसके बीच क्रम टूटे नहीं, लगातार नियम पालन करना, सुनने वाला कोई न मिले तो धी का दीपक जला उसके आगे या जल के पात्र को सामने रख कर कथा कहना, परन्तु नियम न टूटे। जब कार्य सिद्ध न हो नियम का पालन करना और कार्य सिद्ध हो जाने पर व्रत का उद्यापन करना। तीन मास में माता फल पूरा करती है। यदि किसी के ग्रह खोटे भी हों, तो भी माता वर्ष भर में कार्य सिद्ध करती है, फल सिद्ध होने पर उद्यापन करना चाहिए बीच में नहीं। उद्यापन में अढ़ाई सेर आटे का खाजा तथा इसी परिमाण से खीर तथा चने का साग करना। आठ लड़कों को भोजन कराना, जहां तक मिलें देवर, जेठ, भाई-बंधु के हों, न मिले तो रिश्तेदारों और पास-पड़ौसियों को बुलाना। उन्हें भोजन करा यथा शक्ति दक्षिणा दे माता का नियम पूरा करना। उस दिन घर में खटाई न खाय।

यह सुन बुढिय़ा के लडके की बहू चल दी। रास्ते में लकड़ी के बोझ को बेच दिया और उन पैसों से गुड़-चना ले माता के व्रत की तैयारी कर आगे चली और सामने मंदिर देखकर पूछने लगी-'यह मंदिर किसका है? सब कहने लगे संतोषी माता का मंदिर है, यह सुनकर माता के मंदिर में जाकर चरणों में लोटने लगी। दीन हो विनती करने लगी- मां में निपट अज्ञानी हूं, व्रत के कुछ भी नियम नहीं जानती, मैं दु:खी हूं, हे माता जगत जननी मेरा दु:ख दूर कर मैं तेरी शरण में हूं। माता को दया आई - एक शुक्रवार बीता कि दूसरे को उसके पति का पत्र आया और तीसरे शुक्रवार को उसका भेजा हुआ पैसा आ पहुंचा। यह देख जेठ-जिठानी मुंह सिकोडऩे लगे। इतने दिनों में इतना पैसा आया, इसमें क्या बड़ाई? लड़के ताने देने लगे- काकी के पास पत्र आने लगे, रुपया आने लगा, अब तो काकी की खातिर बढ़ेगी, अब तो काकी बोलने से भी नहीं बोलेगी। बेचारी सरलता से कहती- भैया कागज आवे रुपया आवे हम सब के लिए अच्छा है। ऐसा कह कर आंखों में आंसू भरकर संतोषी माता के मंदिर में आ मातेश्वरी के चरणों में गिरकर रोने लगी। मां मैने तुमसे पैसा कब मांगा है। मुझे पैसे से क्या काम है? मुझे तो अपने सुहाग से काम है। मै तो अपने स्वामी के दर्शन मांगती हूं। तब माता ने प्रसन्न होकर कहा-जा बेटी, तेरा स्वामी आवेगा। यह सुनकर खुशी से बावळी होकर घर में जा काम करने लगी।

अब संतोषी मां विचार करने लगी, इस भोली पुत्री को मैने कह तो दिया कि तेरा पति आवेगा, कैसे? वह तो इसे स्वप्न में भी याद नहीं करता। उसे याद दिलाने को मुझे ही जाना पड़ेगा। इस तरह माता जी उस बुढिय़ा के बेटे के पास जा स्वप्न में प्रकट हो कहने लगी- साहूकार के बेटे, सो रहा है या जागता है। वह कहने लगा- माता सोता भी नहीं, जागता भी नहीं हूं कहो क्या आज्ञा है? मां कहने लगी- तेरे घर-बार कुछ है कि नहीं? वह बोला- मेरे पास सब कुछ है मां-बाप है बहू है क्या कमी है। मां बोली- भोले पुत्र तेरी बहू घोर कष्ट उठा रही है, तेर मां-बाप उसे त्रास दे रहे हैं। वह तेरे लिए तरस रही है, तू उसकी सुध ले। वह बोला- हां माता जी यह तो मालूम है, परंतु जाऊं तो कैसे? परदेश की बात है, लेन-देन का कोई हिसाब नहीं, कोई जाने का रास्ता नहीं आता, कैसे चला जाऊं? मां कहने लगी- मेरी बात मान, सवेरे नहा धोकर संतोषी माता का नाम ले, घी का दीपक जला दण्डवत कर दुकान पर जा बैठ। देखते-देखते सारा लेन-देन चुक जाएगा, जमा का माल बिक जाएगा, साझ होते-होते धन का भारी ठेर लग जाएगा।

अब सवेरे जल्दी उठ भाई-बंधुओं से सपने की सारी बात कहता है। वे सब उसकी अनसुनी कर दिल्लगी उड़ाने लगे। कभी सपने भी सच होते हैं। एक बूढ़ा बोला- देख भाई मेरी बात मान, इस प्रकार झूंठ-सांच करने के बदले देवता ने जैसा कहा है वैसा ही करने में तेरा क्या जाता है। अब बूढ़े की बात मानकर वह नहा धोकर संतोषी माता को दण्डवत धी का दीपक जला दुकान पर जा बैठता है। थोड़ी देर में क्या देखता है कि देने वाले रुपया लाने लगे, लेने वाले हिसाब लेने लगे। कोठे में भरे सामान के खरीददार नकद दाम दे सौदा करने लगे। शाम तक धन का भारी ठेर लग गया। मन में माता का नाम ले चमत्कार देख प्रसन्न हो घर ले जाने के वास्ते गहना, कपड़ा सामान खरीदने लगा। यहां काम से निपट तुरंत घर को रवाना हुआ।

वह बेचारी जंगल में लकड़ी लेने जाती है। लौटते वक्त माताजी क मंदिर में विश्राम करती है। वह तो उसके प्रतिदिन रुकने का जो स्थान ठहरा, धूल उड़ती देख वह माता से पूछती है- हे माता, यह छूल कैसे उड़ रही है? माता कहती है- हे पुत्री तेरा पति आ रहा है। अब तू ऐसा कर लकडिय़ों के तीन बोझ बना ले, एक नदी के किनारे रख और दूसरा मेरे मंदिर पर व तीसरा अपने सिर पर रख। तेरे पति को लकडिय़ों का गट्ठर देख मोह पैदा होगा, वह यहां रुकेगा, नाश्ता-पानी खाकर मां से मिलने जाएगा, तब तू लकडिय़ों का बोझ उठाकर जाना और चौक मे गट्ठर डालकर जोर से आवाज लगाना- लो सासूजी, लकडिय़ों का गट्ठर लो, भूसी की रोटी की रोटी दो, नारियल के खेपड़े में पानी दो, आज मेहमान कौन आया है? बहुत अच्छा। माताजी से कहकर वह प्रसन्न मन से लकडिय़ों के तीन ग_र ले आई। एक नदी के किनारे पर और एक माताजी के मंदिर पर रखा। इतने में मुसाफिर आ पहुंचा। सूखी लकड़ी देख उसकी इच्छा उत्पन्न हुई कि हम यही पर विश्राम करें और भोजन बनाकर खा-पीकर गांव जाएं। इसी तरह रुक कर भोजन बना, विश्राम करके गांव को गया। सबसे प्रेम से मिला। उसी समय सिर पर लकड़ी का गट्ठर लिए वह उतावली सी आती है। लकडिय़ों का भारी बाझ आंगन में डालकर जोर से तीन आवाज देती है- लो सासूजी, लकडिय़ों का गट्ठर लो, भूसी की रोटी दो। आज मेहमान कौन आया है?

यह सुनकर उसकी सास बाहर आकर अपने दिए हुए कष्टों को भुलाने हेतु कहती है- बहु ऐसा क्यों कहती है? तेरा मालिक ही तो आया है। आ बैठ, मीठा भात खा, भोजन कर, कपड़े-गहने पहिन। उसकी आवाज सुन उसका पति बाहर आता है। अंगूठी देख व्याकुल हो जाता है। मां से पूछता है- मां यह कौन है? मां कहती है-बेटा यह तेरी बहु है। आज १२ बर्ष हो गए, जब से तू गया है तब से सारे गांव में जानवर की तरह भटकती फिरती है। घर का काम-काज कुछ करती नहीं, चार पहर आकर खा जाती है। अब तुझे देख भूसी की रोटी और नारियल के खोपड़े में पानी मांगती है। वह लज्जित हो बोला- ठीक है मां मैने इसे भी देखा और तुम्हें भी देखा है, अब दूसरे घर की ताली दो, उसमें रहूंगा। अब मां बोली-ठीक है बेटा, जैसी तेरी मरजी हो सो कर। यह कह ताली का गुच्छा पटक दिया। उसने ताली लेकर दूसरे मकान की तीसरी मंजिल का कमरा खोल सारा सामान जमाया। एक दिन में राजा के महल जैसा ठाट-बाट बन गया। अब क्या था? बहु सुख भोगने लगी।

इतने में शुक्रवार आया। उसने अपने पति से कहा- मुझे संतोषी माता के व्रत का उद्यापन करना है। उसका पति बोला -अच्छा, खुशी से कर लो। वह उद्यापन की तैयारी करने लगी। जिठानी के लड़कों को भोजन के लिए कहने गई। उन्होंने मंजूर किया परन्तु पीछे से जिठानी ने अपने बच्चों को सिखाया, देखो रे, भोजन के समय सब लो खटाई मांगना, जिससे उसका उद्यापन पूरा न हो। लड़के जीमने आए खीर खाना पेट भर खाया, परंतु बाद में खाते ही कहने लगे- हमें खटाई दो, खीर खाना हमको नहीं भाता, देखकर अरूचि होती है। वह कहने लगी- भाई खटाई किसी को नहीं दी जाएगी। यह तो संतोषी माता का प्रसाद है। लड़के उठ खड़े हुए, बोले- पैसा लाओ, भोली बहु कुछ जानती नहीं थी, उन्हें पेसे दे दिए। लड़के उसी समय हठ करके इमली खटाई ले खाने लगे। यह देखकर बहु पर माताजी ने कोप किया। राजा के दूत उसके पति को पकड़ कर ले गए। जेठ जेठानी मन-माने वचन कहने लगे। लूट-लूट कर धन इकठ्ठा कर लाया है, अब सब मालूम पड़ जाएगा जब जेल की मार खाएगा।

बहु से यह वचन सहन नहीं हुए। रोती हुई माताजी के मंदिर गई, कहने लगी- हे माता, तुमने क्या किया, हंसा कर अब भक्तों को रुलाने लगी? माता बोली- बेटी तूने उद्यापन करके मेरा व्रत भंग किया है। इतनी जन्दी सब बातें भुला दी? वह कहने लगी- माता भूलती तो नहींं, न कुछ अपराध किया है, मैने तो भूल से लड़कों को पैसे दे दिए थे, मुझे क्षमा करो। मै फिर तुम्हारा उद्यापन करूंगी। मां बोली- अब भूल मत करना। वह कहती है- अब भूल नहीं होगी, अब बतलाओ वे कैसे आवेंगे? मां बोली- जा पुत्री तेरा पति तुझे रास्ते में आता मिलगा। वह निकली, राह में पति आता मिला। वह पूछती है- तुम कहां गए थे? वह कहने लगा- इतना धन जो कमाया है उसका टैक्स राजा ने मांगा था, वह भरने गया था। वह प्रसन्न हो बोली- भला हुआ, अब घर को चलो।

घर गए, कुछ दिन बाद फिर शुक्रवार आया। वह बोली- मुझे फिर माता का उद्यापन करना है। पति ने कहा- करो। बहु फिर जेठ के लड़कों को भोजन को कहने गई। जेठानी ने एक दो बातें सुनाई और सब लड़कों को सिखाने लगी। तुम सब लोग पहले ही खटाई मांगना। लड़के भोजन से पहले कहने लगे- हमे खीर नहीं खानी, हमारा जी बिगड़ता है, कुछ खटाई खाने को दो। वह बोली- खटाई किसी को नहीं मिलेगी, आना हो तो आओ, वह ब्राह्मण के लड़के लाकर भोजन कराने लगी, यथा शक्ति दक्षिणा की जगह एक-एक फल उन्हें दिया। संतोषी माता प्रसन्न हुई।

माता की कृपा होते ही नवें मास में उसके चन्द्रमा के समान सुन्दर पुत्र प्राप्त हुआ। पुत्र को पाकर प्रतिदिन माता जी के मंदिर को जाने लगी। मां ने सोचा- यह रोज आती है, आज क्यों न इसक घर चलूं? इसका आसरा देखू तो सही। यह विचार कर माता ने भयानक रूप बनाया, गुड़-चने से सना मुख, ऊपर सूंड के समान होठ, उस पर मक्खियां भिन-भिन कर रही थी। देहली पर पैर रखते ही उसकी सास चिल्लाई- देखो रे, कोई चुडैल डाकिन चली आ रही है, लड़कों इसे भगाओ, नहीं तो किसी को खा जाएगी। लड़के भगाने लगे, चिल्लाकर खिड़की बंद करने लगे। बहु रौशनदान में से देख रही थी, प्रसन्नता से पगली बन चिल्लाने लगी- आज मेरी माता जी मेरे घर आई है। वह बच्चे को दूध पीने से हटाती है। इतने में सास का क्रोध फट पड़ा। वह बोली-रांड देखकर क्या उतावली हुई है? बच्चे को पटक दिया। इतने में मां के प्रताप से लड़के ही लड़के नजर आने लगे। वह बोली- मां मै जिसका व्रत करती हूं यह संतोषी माता है। इतना कहकर झट से सारे किवाड़ खोल दिए।

सबने माता जी के चरण पकड़ लिए और विनती कर कहने लगे- हे माता, हम मूर्ख हैं, अज्ञानी हैं, तुम्हारे व्रत की विधि हम नहीं जानते, व्रत भंग कर हमने बड़ा अपराध किया है, जग माता आप हमारा अपराध क्षमा करो। इस प्रकार माता प्रसन्न हुई। बहू को प्रसन्न हो जैसा फल दिया, वैसा माता सबको दे, जो पढ़े उसका मनोरथ पूर्ण हो।

बोलो संतोषी की माता की जय।

शुक्रवार, 27 मार्च 2009

नवरात्रि व्रत की महिमाकौशल

 (पुराण: वेद और पुराण हिंदू धर्म की अमूल्य निधि हैं। पुराण ज्ञान और शिक्षा के साथ मनोरंजन का भी भरपूर खजाना है। यही कारण है कि लोग इसे आज के समय में भी पढ़ना पसंद करते हैं। जन्म से मृत्यु तक के हमारे संस्कार इन्हीं वेदों और पुराणों की परंपरा पर आधारित हैं। पुराणों की संख्या अठ्ठारह कही गई है। इनमें विभिन्न व्यक्तियों, वस्तुओं, जीवों आदि को आधार बनाकर शिक्षा और ज्ञान का महत्व बताया गया है। कहानियों-कथाओं के जरिए सही और गलत में अंतर बताया गया है। )
नवरात्रि व्रत की महिमाकौशल 
देश में सुशील नामक का एक निर्धन ब्राह्मण रहता था। प्रतिदिन मिलने वाली भिक्षा से वह अपने परिवार का भरण-पोषण करता था। उसके कई बच्चे थे। प्रातःकाल वह भिक्षा लेने घर से निकलता और सायंकाल लौट आता था। देवताओं, पितरों और अतिथियों की पूजा करने के बाद आश्रितजन को खिलाकर ही वह स्वयं भोजन ग्रहण करता था। इस प्रकार भिक्षा को वह भगवान का प्रसाद समझकर स्वीकार करता था।इतना दुःखी होने पर भी वह दूसरों की सहायता के लिए सदैव तत्पर रहता था। यद्यपि उसके मन में अपार चिंता रहती थी, तथापि वह सदैव धर्म-कर्म में लगा रहता था। अपनी इन्द्रियों पर उसका पूर्ण नियंत्रण था। वह सदाचारी, धर्मात्मा और सत्यवादी था। उसके हृदय में कभी क्रोध, अहंकार और ईर्ष्या जैसे तुच्छ विकार उत्पन्न नहीं होते थे।
एक बार उसके घर के निकट सत्यव्रत नामक एक तेजस्वी ऋषि आकर ठहरे। वे एक प्रसिद्ध तपस्वी थे। मंत्रों और विद्याओं का ज्ञाता उनके समान आस-पास दूसरा कोई नहीं था। शीघ्र ही अनेक व्यक्ति उनके दर्शनों को आने लगे। सुशील के हृदय में भी उनसे मिलने की इच्छा जागृत हुई और वह उनकी सेवा में उपस्थित हुआ। सत्यव्रत को प्रणाम कर वह बोला-“ऋषिवर! आपकी बुद्धि अत्यंत विलक्षण है। आप अनेक शास्त्रों, विद्याओं और मंत्रों के ज्ञाता हैं। मैं एक निर्धन, दरिद्र और असहाय ब्राह्मण हूँ। कृपया मुझे बताएँ कि मेरी दरिद्रता किस प्रकार समाप्त हो सकती है?” सत्यव्रत ने आगे कहा कि, “मुनिवर! आपसे यह पूछने का केवल इतना ही अभिप्राय है कि मुझ में कुटुम्ब का भरण-पोषण करने की शक्ति आ जाए। धनाभाव के कारण मैं उन्हें समुचित सुविधाएँ और अन्य सुख नहीं दे पा रहा हूँ। दयानिधान! तप, दान, व्रत, मंत्र अथवा जप-आप कोई ऐसा उपाय बताने का कष्ट करें, जिससे कि मैं अपने परिवार का यथोचित भरण-पोषण कर सकूँ। मुझे केवल इतने ही धन का अभिलाषा है, जिससे कि मेरा परिवार सुखी हो जाए।”
सत्यव्रत ने सुशील को भगवती दुर्गा की महिमा बताते हुए नवरात्रि व्रत करने का परामर्श दिया। सुशील ने सत्यव्रत को अपना गुरु बनाकर उनसे मायाबीज नामक भुवनेश्वरी मंत्र की दीक्षा ली। तत्पश्चात नवरात्रि व्रत रखकर उस मंत्र का नियमित जप आरम्भ कर दिया। उसने भगवती दुर्गा की श्रद्धा और भक्तिपूर्वक आराधना की। नौ वर्षों तक प्रत्येक नवरात्रि में वह भगवती दुर्गा के मायाबीज मंत्र का निरंतर जप करता रहा। सुशील की भक्ति से प्रसन्न होकर नवें वर्ष की नवरात्रि में, अष्टमी की आधी रात को देवी भगवती साक्षात प्रकट हुईं और सुशील को उसका अभीष्ट वर प्रदान करते हुए उसे संसार का समस्त वैभव, ऐश्वर्य और मोक्ष प्रदान किया। इस प्रकार भगवती दुर्गा ने प्रसन्न होकर अपने भक्त सुशील के सभी कष्टों को दूर कर दिया और उसे अतुल धन-सम्पदा, मान-सम्मान और समृद्धि प्रदान की।
इस कहानी से यह शिक्षा मिलती है कि किसी भी कार्य को श्रद्धा, भक्ति और निष्ठा से करने पर उसका फल सदैव अनुकूल ही प्राप्त होता है।

गुरुवार, 19 मार्च 2009

तीन गुणों का बेलेंस केवल नौ दिन में

चैत्र (वसंत ऋतु) की नवरात्रि घट स्थापना २७ मार्च को होगी। एक बार फिर अपने अच्छे बुरे गुणों के सामंजस्य का मौका सबको मिलेगा। नवरात्रि के नौ दिन तीन मौलिक गुणों से बने इस ब्रह्मांड में आनंदित रहने का भी एक अवसर हैं। यद्यपि हमारा जीवन इन तीन गुणों के द्वारा ही संचालित है। फिर भी हम उन्हें कम ही पहचान पाते हैं या उनके बारे में विचार भी बहुत कम ही कर पाते हैं। वस्तुत: नवरात्रि के पहले तीन दिन तमोगुण के हैं। दूसरे तीन दिन रजोगुण के और आखिरी तीन दिन सत्व गुण के लिए हैं। हमारी चेतना इन तमोगुण और रजोगुण के बीच बहती हुई सतोगुण के आखिरी तीन दिनों में खिल उठती है। चेतना के इस उत्सवधर्मी उदय से हमारे जीवन में सत्व का विस्तार होता है और जब भी जीवन में सत्व बढता है, तब हमें विजय मिलती है। इस ज्ञान का सारतत्व जश्न के रूप में दसवें दिन विजयदशमी के रूप में मनाया जाता है। यह तीन मौलिक गुण हमारे भव्य ब्रह्मांड की स्त्री शक्ति माने गए हैं। नवरात्रि के दौरान देवी मां की पूजा करके हम त्रिगुणों में सामंजस्य लाते हैं और वातावरण में सत्व के स्तर को बढाते हैं।

नवरात्रि का त्योहार आश्विन (शरद ऋतु) की शुरुआत में और चैत्र (वसंत ऋतु) की शुरुआत में प्रार्थना और उल्लास के साथ मनाया जाता है। यह काल आत्मनिरीक्षण और अपने स्त्रोत की ओर वापस जाने का समय होता है। परिवर्तन के इस काल के दौरान, प्रकृति भी पुराने को झाड कर नवीन हो जाती है। शीत ऋतु में कई जानवर शीत निद्रा में चले जाते हैं और वसंत के मौसम में जीवन वापस नए सिरे से खिल उठता है।
वैदिक विज्ञान के अनुसार, पदार्थ अपने मूल रूप में वापस आकर फिर से बार-बार अपनी रचना करता है। यह सृष्टि सीधी रेखा में नहीं चल रही है, बल्कि वह चक्रीय है। प्रकृति के द्वारा सभी कुछ का पुनर्नवीनीकरण हो रहा है। कायाकल्प की यह एक सतत प्रक्रिया है। फिर भी सृष्टि के इस नियमित चक्र से मनुष्य का मन पीछे छूटा हुआ है। नवरात्रि का त्योहार अपने मन को वापस अपने स्त्रोत की ओर ले जाने के लिए है।
उपवास, प्रार्थना, मौन और ध्यान के माध्यम से जिज्ञासु अपने सच्चे स्त्रोत की ओर यात्रा करता है। रात को भी रात्रि कहते हैं। क्योंकि वह भी नवीनता और ताजगी लाती है। वह हमारे अस्तित्व के तीन स्तरों पर राहत देती है-स्थूल शरीर को, सूक्ष्म शरीर को और कारण शरीर को।
उपवास के द्वारा शरीर तमाम तरह के विषाक्त पदार्थो से मुक्त हो जाता है। मौन के द्वारा हमारे वचनों में शुद्धता आती है और बातूनी मन शांत होता है तथा ध्यान के द्वारा अपने अस्तित्व की गहराइयों में डूबकर हमें आत्म साक्षात्कार मिलता है। यह आंतरिक यात्रा हमारे बुरे कर्मो को समाप्त करती है। नवरात्रि अपने मूल रूप में आत्मा अथवा प्राण का उत्सव है। इसके द्वारा ही महिषासुर (अर्थात् जडता), शुम्भ-निशुम्भ (गर्व और शर्म) और मधु-कैटभ (अत्यधिक राग-द्वेष) को नष्ट किया जा सकता है। वे एक दूसरे से पूर्णत: विपरीत हैं, फिर भी एक दूसरे के पूरक हैं। जडता, गहरी नकारात्मकता और मनोग्रस्तियां (रक्तबीजासुर), बेमतलब का वितर्क (चंड-मुंड) और धुंधली दृष्टि (धूम्रलोचन) को केवल प्राण और जीवन शक्ति ऊर्जा के स्तर को ऊपर उठाकर ही दूर किया जा सकता है।
हालांकि नवरात्रि बुराई पर अच्छाई की विजय के रूप में मनाई जाती है। परंतु वास्तविकता में यह लडाई अच्छे और बुरे के बीच में नहीं है। वेदांत की दृष्टि से यह द्वैत पर अद्वैत की जीत है। जैसा कि अष्टावक्र ने कहा था, बेचारी लहर अपनी पहचान को समुद्र से अलग रखने की लाख कोशिश करती है, लेकिन कोई लाभ नहीं होता।
हालांकि इस स्थूल संसार के भीतर ही सूक्ष्म संसार समाया हुआ है। लेकिन उनके बीच भासता अलगाव की भावना ही द्वंद्व का कारण है। एक ज्ञानी के लिए पूरी सृष्टि जीवंत है। जैसे बच्चों को सभी चीजों में जीवन होने का आभास होता है, ठीक उसी प्रकार उसे भी सब में जीवन दिखता है। देवी मां या शुद्ध चेतना ही सब नाम और रूप में व्याप्त हैं। हर नाम और हर रूप में एक ही देवत्व को जानना ही नवरात्रि का उत्सव है। अत: आखिर के तीन दिनों के दौरान विशेष पूजाओं के द्वारा जीवन और प्रकृति के सभी पहलुओं का सम्मान किया जाता है।
काली मां प्रकृति की सबसे भयानक अभिव्यक्ति हैं। प्रकृति सौंदर्य का प्रतीक है, फिर भी उसका एक भयानक रूप भी है। इस द्वैत के यथार्थ को मान लेने से मन में एक स्वीकृति आ जाती है और मन को आराम मिलता है।
देवी मां को सिर्फ बुद्धि के रूप में नहीं जाना जाता, बल्कि भ्रांति के रूप में भी उन्हें जाना जाता है। वह न सिर्फ लक्ष्मी (समृद्धि) हैं, बल्कि वह भूख (क्षुधा) भी और प्यास (तृष्णा) भी हैं। संपूर्ण सृष्टि में देवी मां के इस दोहरे पहलू को पहचान लेने के बाद एक गहरी समाधि लग जाती है। यह पश्चिम में सदियों से चले आ रहे धार्मिक संघर्ष का भी एक उत्तर है। ज्ञान, भक्ति और निष्काम कर्म के द्वारा अद्वैत सिद्धि प्राप्त की जा सकती है अथवा इस अद्वैत चेतना में पूर्णता की स्थिति प्राप्त की जा सकती है।

(शास्त्रों और संतों की वाणी से साभार )

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

साधना की सफलता और सिद्धि प्राप्ति

ऐसा लगता है लोगों ने ईश्वर उपासना, पूजा-पाठ, जप-तप और सांसारिक प्रलोभनों को ही साधना बना लिया है। उनका उद्देश्य किसी प्रकार धन प्राप्त करना होता है। ऐसे लोगों को प्रथम तो उपासनाजनितशक्ति ही प्राप्त नहीं होती और किसी कारणवश थोडी बहुत सफलता प्राप्त हो गई तो वह शीघ्र ही नष्ट हो जाती है और आगे के लिए रास्ता बंद हो जाता है। देवी शक्तियां कभी किसी अयोग्य व्यक्ति को ऐसी साम‌र्थ्य प्रदान नहीं कर सकती, जिससे वह दूसरों का अनिष्ट करने लग जाए।

उपासना प्रारंभ करते ही साधक की अंत:प्रक्रियामें तेजी से परिवर्तन प्रारंभ होते हैं। जिस प्रकार आग पर चढे कडाहेमें जब तक आंच नहीं लगती, तब तक उसमें भरे जल में कोई हलचल दिखाई नहीं देती, किंतु जैसे-जैसे आग तेज होती है जल में हलचल, उबलना, खौलना, भाप बनना सब प्रारंभ हो जाता है। उसी प्रकार साधना की आंच से भी विचार मंथन और आत्मिक जगत में हलचल प्रारंभ होती है। उसके बाद शनै:-शनै:ऐसे लक्षण प्रकट होने प्रारंभ हो जाते हैं जिन्हें साधना की सफलता और सिद्धि प्राप्ति के लक्षण कह सकते हैं।
यह उपलब्धि चर्चित नहीं होनी चाहिए, अन्यथा साधक का अहंकार बढेगा और वह पथ भ्रष्ट होगा। किंतु उन्हें अनुभव कर सफलता के प्रति आश्वस्त हुआ जा सकता है। दूसरों का वैभव बढाने में आत्मशक्ति का सीधा प्रत्यावर्तन करना अपनी शक्तियों को समाप्त करना है।

बुधवार, 21 जनवरी 2009

बस! मन से माना, पूजा और हो गया.

माता की महर के लिए उनकी पूजा और उपासना की जाती है। यहां पर प्रश्न यह उठता है कि यह पूजा कैसी होनी चाहिए? जो व्यक्ति पवित्र हृदय से माँ संतोषी की पूजा-आराधना करेगा, माँ उसी को मन से स्वीकार करेंगी । पूजा के लिए यह जरूरी नहीं है कि उसका प्रदर्शन किया जाए! पूजा में पवित्र हृदय का होना अत्यंत आवश्यक है। संतोषी माता की पूजा के मेरे अनुभवों के आधार पर मैं यही कहता हूँ की बस एक बार माँ को मन से मानो। माँ को मान्यता देने के बाद चाहे जैसे उनकी पूजा करो। ज्यों ही तुम्हे संतोष का अनुभव होता है, तो समझो पूजा पूर्ण हुई। माँ तुम्हारी बिनती जरूर सुनेगी। यह सच है कि कीमती पूजा-विधान, अभिषेक, होम या गेरुआ वस्त्र आदि धारण करने से ही माता प्रसन्न नहीं होती हैं। जिसने हृदय की पवित्रता को आधार बनाकर स्वयं को माता के चरणों में समर्पित कर दिया, माता उसे ही स्वीकार करती हैं। सोने-चांदी के बर्तन , मेवा-मिष्ठान या भव्य आयोजनों से नहीं बल्कि सामान्य चने और गुड से ही माँ प्रसन्न होती है।
प्रचलित धार्मिक कथाओं के अनुसार, एक बार कृष्ण की पत्नी रुक्मिणी और सत्यभामा में इस बात पर बहस हुई कि उन दोनों में कौन श्रीकृष्ण से अधिक प्रेम, स्नेह करता है? कौन उनके अधिक निकट है? दोनों ने अपने आपको उनके अधिक निकट बताया। अंत में दोनों ने एक परीक्षा द्वारा इसका समाधान ढूंढने का निश्चय किया। एक तराजू के एक पलडे में सत्यभामा ने सोना, चांदी, हीरे और कीमती आभूषण रखे, जबकि रुक्मिणी ने दूसरे पलडे में प्रेम, स्नेह और विनम्रतापूर्वक तुलसी का एक पत्ता रखा। श्रीकृष्ण ने सोने, हीरे और कीमती आभूषणों के बजाय तुलसी के पत्ते को आनंद से स्वीकार लिया, क्योंकि उन्हें विनम्रता, सरलता और पवित्रता से समर्पित किया गया था। यह वृत्तांत इस बात को स्पष्ट करता है कि ईश्वर पवित्र हृदय से समर्पित साधारण वस्तुओं को अधिक पसंद करते हैं।

ऐसा ही एक प्रसंग दक्षिण भारत स्थित कर्नाटक के उडुपिक्षेत्र में बने श्रीकृष्ण मंदिर से संबंधित है। यहां मंदिर के मुख्य द्वार की ओर पीठ की हुई भगवान की मूर्ति नजर आती है। मंदिर में प्रवेश करते ही आप श्रीकृष्ण की पीठ देख सकते हैं। इसके पीछे एक दिलचस्प कहानी है। एक गरीब भक्त प्रतिदिन भगवान के दर्शन के लिए मंदिर तक आता था। लेकिन गरीब होने के कारण, उसे मंदिर में प्रवेश नहीं मिलता था और वह मायूस होकर लौट जाता था। आंखों में आंसू लिए प्रतिदिन वह भगवान श्रीकृष्ण से उनके दर्शन के लिए प्रार्थना करता था। एक दिन श्रीकृष्ण उसके सपने में प्रकट हुए और उन्होंने उससे कहा--मंदिर की पिछली दीवार में एक छेद है। उस छेद से तुम मुझे देखो। तुम्हारे लिए मैं उस दिशा में मुड जाऊंगा और तुम मेरे दर्शन कर सकोगे। अपने भक्त को दर्शन देने के लिए श्री्रकृष्णमुड गए। श्रीकृष्ण की ऐसी भंगिमा वाली मूर्ति को आज भी उडुपिमें देखा जा सकता है।
भगवान को चढावे के रूप में मांस अर्पित करना निषिद्ध है। लेकिन दक्षिण भारत के कणप्पानामक शिवभक्तने भगवान शिवजी को नैवेद्य में मांस अर्पित किया था। समर्पण करने से पहले खाना स्वादिष्ट बना है या नहीं, यह देखने के लिए उसने उसे चखकर जूठा भी कर दिया था। फिर भी शिवजी ने उसे स्वीकारा, क्योंकि कणप्पाने उसे भक्ति तथा पवित्र हृदय से समर्पित किया था।
कुल मिलाकर पूजा, प्रार्थना, उपासना, इबादत में हृदय की पवित्रता, माता के प्रति मान्यता और समर्पण भाव हो, तभी संतोष की प्राप्ति होगी और हम माँ संतोषी के निकट होने की अनुभूति कर पाएंगे।

शनिवार, 3 जनवरी 2009

संतोषी की माता आरती ...

गणेश स्मरण...
जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा,
माता जाकी पारवती पिता महादेवा।
पान चढ़े फूल चढ़े और चढ़े मेवा,
लडुवन का भोग लगे संत करें सेवा।
संतोषी माँ की आरती...
ॐ जय संतोषी माता, मैया जय संतोषी माता।
भक्त जनन हित कारिणी, ...भक्त जनन हित कारिणी, सुख सम्पति दाता। ...ॐ जय संतोषी माता
शीश मुकट सोने का, गल मुक्ता माला। ...मैया गल मुक्ता माला ।
कानन कुंडल राजे ...कानन कुंडल राजे, कमला कृति बाला। ...ॐ जय संतोषी माता
भाल बिन्दिका राजे, नासाग्रह मोती ...मैया नासाग्रह मोती ।
चार भुजा फलदाई ...चार भुजा फलदाई , नेत्र रतन ज्योति। ...ॐ जय संतोषी माता
भक्ति भाव की भूखी, मन वांछित दाता ...मैया मन वांछित दाता।
जो कोई तुमको ध्यावे, .....जो कोई तुमको ध्यावे, कभी न दुःख पाता ...ॐ जय संतोषी माता ।
गुड अरु चना तुम्हे है, मोदक से प्यारा ......मैया मोदक से प्यारा।
शुक्रवार शुभ दिन है ...शुक्रवार शुभ दिन है, तुमने चित धारा ...ॐ जय संतोषी माता ।
सुर नर ज्ञानी ध्यानी, तेरे गुन गावे ... मैया तेरे गुन गावे।
सनकादिक ब्रह्मादिक ...सनकादिक ब्रह्मादिक, सब तुमको ध्यावे ...ॐ जय संतोषी माता ।
ब्रम्हाणी रूद्राणी तू कमला रानी ...मैया तू कमला रानी।
सकल सिद्धि की दायक ...सकल सिद्धि की दायक, तू माँ कल्याणी ...ॐ जय संतोषी माता।
रूप अरूप सवाया, खड़क त्रिशूल धारी ...मैया खड़क त्रिशूल धारी।
बालक युवक सभी नर ...बालक युवक सभी नर, नारी बलिहारी ...ॐ जय संतोषी माता।
तन मन धन, सबकुछ है तोरा ......मैया सबकुछ है तोरा।
तोरा तुझ को अर्पण ...तोरा तुझ को अर्पण, क्या लागे मोरा ...ॐ जय संतोषी माता।
जो कोई यह आरती, चित मन से गावे ...मैया चित मन से गावे।
लख चौरासी छूटे ......लख चौरासी छूटे, भव से तर जावे ...ॐ जय संतोषी माता।
ॐ जय संतोषी माता, मैया जय संतोषी माता।
भक्त जनन हित कारिणी ...भक्त जनन हित कारिणी, सुख सम्पति दाता।...ॐ जय संतोषी माता।