चैत्र (वसंत ऋतु) की नवरात्रि घट स्थापना २७ मार्च को होगी। एक बार फिर अपने अच्छे बुरे गुणों के सामंजस्य का मौका सबको मिलेगा। नवरात्रि के नौ दिन तीन मौलिक गुणों से बने इस ब्रह्मांड में आनंदित रहने का भी एक अवसर हैं। यद्यपि हमारा जीवन इन तीन गुणों के द्वारा ही संचालित है। फिर भी हम उन्हें कम ही पहचान पाते हैं या उनके बारे में विचार भी बहुत कम ही कर पाते हैं। वस्तुत: नवरात्रि के पहले तीन दिन तमोगुण के हैं। दूसरे तीन दिन रजोगुण के और आखिरी तीन दिन सत्व गुण के लिए हैं। हमारी चेतना इन तमोगुण और रजोगुण के बीच बहती हुई सतोगुण के आखिरी तीन दिनों में खिल उठती है। चेतना के इस उत्सवधर्मी उदय से हमारे जीवन में सत्व का विस्तार होता है और जब भी जीवन में सत्व बढता है, तब हमें विजय मिलती है। इस ज्ञान का सारतत्व जश्न के रूप में दसवें दिन विजयदशमी के रूप में मनाया जाता है। यह तीन मौलिक गुण हमारे भव्य ब्रह्मांड की स्त्री शक्ति माने गए हैं। नवरात्रि के दौरान देवी मां की पूजा करके हम त्रिगुणों में सामंजस्य लाते हैं और वातावरण में सत्व के स्तर को बढाते हैं।
नवरात्रि का त्योहार आश्विन (शरद ऋतु) की शुरुआत में और चैत्र (वसंत ऋतु) की शुरुआत में प्रार्थना और उल्लास के साथ मनाया जाता है। यह काल आत्मनिरीक्षण और अपने स्त्रोत की ओर वापस जाने का समय होता है। परिवर्तन के इस काल के दौरान, प्रकृति भी पुराने को झाड कर नवीन हो जाती है। शीत ऋतु में कई जानवर शीत निद्रा में चले जाते हैं और वसंत के मौसम में जीवन वापस नए सिरे से खिल उठता है।
वैदिक विज्ञान के अनुसार, पदार्थ अपने मूल रूप में वापस आकर फिर से बार-बार अपनी रचना करता है। यह सृष्टि सीधी रेखा में नहीं चल रही है, बल्कि वह चक्रीय है। प्रकृति के द्वारा सभी कुछ का पुनर्नवीनीकरण हो रहा है। कायाकल्प की यह एक सतत प्रक्रिया है। फिर भी सृष्टि के इस नियमित चक्र से मनुष्य का मन पीछे छूटा हुआ है। नवरात्रि का त्योहार अपने मन को वापस अपने स्त्रोत की ओर ले जाने के लिए है।
उपवास, प्रार्थना, मौन और ध्यान के माध्यम से जिज्ञासु अपने सच्चे स्त्रोत की ओर यात्रा करता है। रात को भी रात्रि कहते हैं। क्योंकि वह भी नवीनता और ताजगी लाती है। वह हमारे अस्तित्व के तीन स्तरों पर राहत देती है-स्थूल शरीर को, सूक्ष्म शरीर को और कारण शरीर को।
उपवास के द्वारा शरीर तमाम तरह के विषाक्त पदार्थो से मुक्त हो जाता है। मौन के द्वारा हमारे वचनों में शुद्धता आती है और बातूनी मन शांत होता है तथा ध्यान के द्वारा अपने अस्तित्व की गहराइयों में डूबकर हमें आत्म साक्षात्कार मिलता है। यह आंतरिक यात्रा हमारे बुरे कर्मो को समाप्त करती है। नवरात्रि अपने मूल रूप में आत्मा अथवा प्राण का उत्सव है। इसके द्वारा ही महिषासुर (अर्थात् जडता), शुम्भ-निशुम्भ (गर्व और शर्म) और मधु-कैटभ (अत्यधिक राग-द्वेष) को नष्ट किया जा सकता है। वे एक दूसरे से पूर्णत: विपरीत हैं, फिर भी एक दूसरे के पूरक हैं। जडता, गहरी नकारात्मकता और मनोग्रस्तियां (रक्तबीजासुर), बेमतलब का वितर्क (चंड-मुंड) और धुंधली दृष्टि (धूम्रलोचन) को केवल प्राण और जीवन शक्ति ऊर्जा के स्तर को ऊपर उठाकर ही दूर किया जा सकता है।
हालांकि नवरात्रि बुराई पर अच्छाई की विजय के रूप में मनाई जाती है। परंतु वास्तविकता में यह लडाई अच्छे और बुरे के बीच में नहीं है। वेदांत की दृष्टि से यह द्वैत पर अद्वैत की जीत है। जैसा कि अष्टावक्र ने कहा था, बेचारी लहर अपनी पहचान को समुद्र से अलग रखने की लाख कोशिश करती है, लेकिन कोई लाभ नहीं होता।
हालांकि इस स्थूल संसार के भीतर ही सूक्ष्म संसार समाया हुआ है। लेकिन उनके बीच भासता अलगाव की भावना ही द्वंद्व का कारण है। एक ज्ञानी के लिए पूरी सृष्टि जीवंत है। जैसे बच्चों को सभी चीजों में जीवन होने का आभास होता है, ठीक उसी प्रकार उसे भी सब में जीवन दिखता है। देवी मां या शुद्ध चेतना ही सब नाम और रूप में व्याप्त हैं। हर नाम और हर रूप में एक ही देवत्व को जानना ही नवरात्रि का उत्सव है। अत: आखिर के तीन दिनों के दौरान विशेष पूजाओं के द्वारा जीवन और प्रकृति के सभी पहलुओं का सम्मान किया जाता है।
काली मां प्रकृति की सबसे भयानक अभिव्यक्ति हैं। प्रकृति सौंदर्य का प्रतीक है, फिर भी उसका एक भयानक रूप भी है। इस द्वैत के यथार्थ को मान लेने से मन में एक स्वीकृति आ जाती है और मन को आराम मिलता है।
देवी मां को सिर्फ बुद्धि के रूप में नहीं जाना जाता, बल्कि भ्रांति के रूप में भी उन्हें जाना जाता है। वह न सिर्फ लक्ष्मी (समृद्धि) हैं, बल्कि वह भूख (क्षुधा) भी और प्यास (तृष्णा) भी हैं। संपूर्ण सृष्टि में देवी मां के इस दोहरे पहलू को पहचान लेने के बाद एक गहरी समाधि लग जाती है। यह पश्चिम में सदियों से चले आ रहे धार्मिक संघर्ष का भी एक उत्तर है। ज्ञान, भक्ति और निष्काम कर्म के द्वारा अद्वैत सिद्धि प्राप्त की जा सकती है अथवा इस अद्वैत चेतना में पूर्णता की स्थिति प्राप्त की जा सकती है।
(शास्त्रों और संतों की वाणी से साभार )